रिश्ता
*रिश्ता*
ज़िन्दगी अक़्सर उस मुक़ाम पर
लाकर खड़े कर देती है,
जहाँ हम सिक्के के दूसरे पहलू
की ओर होते हैं,
सामने वाला भी सही होता है
उसके नजरिये से,
और हम भी सही होते हैं,
अपने नज़रिये से,
बीच में पिसता है तो सिर्फ मन,
जो जानता तो है कि,
सामने वाला भी सही है,
लेकिन ये मानने को तैयार नहीं,
और स्वयं जब सही है तो वह
अपने को गलत माने क्यों,
ये अन्तर्द्वंद्वता आती क्यों है,
कभी सोचा है,,,,,???
अब बाहर भी आओ,
भ्रम के इस मायाजाल से ,
मान भी जाओ,
नज़रिये की इस भूल भुलैया को,
जब भी मन डांवाडोल से लगे,
रख लेना खुद को,
सामने वाले कि जगह पर,
मान लेना खुद को ,
एक बार
वहम से ग़लत,
और संभाल लेना,
रिश्तों की डोर को,
फिर ये रिश्ता
कितना खूबसूरत हो सकता है,
कभी सोचा है,,,,,???
✍🏻तोषी गुप्ता✍🏻
07/04/2021
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