toshi

apne vajood ki talash me.........
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रविवार, 14 नवंबर 2010

" मोना स्कूल की राज्य स्तरीय उपलब्धि "

नेशनल साइंस ड्रामा फेस्टिवल के लिए एक बार फिर छ.ग. से मोना माडर्न स्कूल,सारंगढ़ का चयन.नेहरु साइंस सेंटर, मुबई में आयोजित इस कॉम्पिटिशन में पहले भी मोना स्कूल का चयन २००८-२००९ में हो चूका हे जिसमे राष्ट्रिय स्तर पर स्कूल को तीसरा स्थान प्राप्त हुआ था.इस बार भी नेशनल साइंस ड्रामा फेस्टिवल , नेहरू साइंसे सेंटर ,मुंबई में आयिजित है.जिसमे पश्चिम भारत के अन्य राज्यों के साथ छ. ग. का प्रतिनिधित्व करते हुए मोना माडर्न हा. से. स्कूल सारंगढ़ , इस प्रतियोगिता में अपनी मजबूत दावेदारी पेश करेगी 

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गुरुवार, 6 मई 2010

" ये सब सिर्फ वीरान है "


आप में ही कलाकार,
मै एक फनकार,
पर दिल है उदास,
देखकर ये झगडे, दंगे और फसाद,
कोई किसी का अपना कंहा,
तुम अपने में, मैं  अपने में जंहा,
मांगने से कुछ मिलता कंहा,
कुछ मिलता तो कुछ खोता जंहा,
देखो दुनिया की कैसी ये रीत हैं,
हर आदमी को किसी न किसी तरह,हर चीज़ से प्रीत है,
प्रकृति की सुन्दर वादियों से,
कवि की सुन्दर कल्पनाओं से,
हम सब जुड़े हैं एक रिश्तों से,
पर इनमें हैं कितनी दूरियां ,
कुछ मनचली , कुछ चंचली, कुछ खामोशियाँ,
इन नाजुक रिश्तों को प्यार की तलाश हैं,
कुछ मेरी , कुछ आपकी लम्बी दास्ताँ है,
इनमें अपनों को ढूंढा तो पाया,
" ये सब सिर्फ वीरान है "

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शुक्रवार, 30 अप्रैल 2010

इरादे आजमाती मुश्किलें




"मुश्किलें दिल के इरादे आजमाती हैं ,
स्वप्न के परदे निगाहों से हटाती हैं,
हौसला मत हार गिर कर ओ मुसाफिर,
ठोकरें इंसान को जीना सिखाती हैं" 


                                     आज बारहवी का रिजल्ट निकलने वाला है..........मन के किसी कोने में एक डर समाया हुआ है कि कल के पेपर में ना जाने क्या पढने को मिले, कारण............ परीक्षाफल निकलने के साथ ही अख़बारों में हर साल कुछ केस पढने को मिल ही जाते हैं कि फलां ने फेल होने पर फंसी लगा ली या फिर फेल होने के डर से किसी ने आत्महत्या कर ली या आत्महत्या का प्रयास किया या घर से भाग गया. एक बात मेरी समझ से परे है कि न्यू  जेनरेशन के ये बच्चे इतने प्रतिभावान और समझदार होते हुए भी इतनी नासमझी की हरकत क्यों और कैसे कर बैठते हैं? और ये भी कि ये ऊर्जावान पीढ़ी इतनी निराशाजनक कब से हो गई?

                                      विद्यार्थियों की इस प्रवृत्ति के पीछे जितना जिम्मेदार वह स्वयं है, उतने उसके माता-पिता या शिक्षक भी हैं. आजकल पेरेंट्स अपने बच्चो से इतनी ज्यादा उम्मीदें रखते हैं कि किसी भी कीमत पर अपने बच्चे को वे अपने परिचितों के बच्चो से किसी भी मायने में कमतर नहीं देख सकते उसी तह शिक्षकों का दोहरा दबाव इस कॉम्पिटिशन के युग में एक विद्यार्थी की मनः स्थिति में क्या प्रभाव डालता होगा इसका आंकलन आप स्वयं कर सकते हैं.
                                       
                                        सभी अपना एक लक्ष्य निर्धारित करके रखते हैं. माना कि वह अपना लक्ष्य प्राप्त करने में असफल हो गया तो ऐसा भी तो नहीं कि वह और किसी लक्ष्य को पूरा नहीं कर सकता. यदि एक छात्र इंजीनियरिंग की परीक्षा में असफल होकर आत्महत्या जैसा कदम उठाता है तो यह उसकी बेवकूफी होगी कारण कि वह अन्य प्रतियोगी परीक्षाओं के जरिये अपना भविष्य बना सकता है 

                                         असफलता का समाधान स्वयं को नुकसान पहुचाना तो नहीं होता और ये भी ज़रूरी नहीं कि एक बार की असफलता हमेशा की असफलता हो.कोशिश करने से तो ज़टिल से ज़टिल कार्य भी पूरा हो जाता है, फिर निर्धारित लक्ष्य क्यों प्राप्त नहीं किया जा सकता..................
  
"कौन कहता है आसमां में सुराख़ नहीं होता, एक पत्थर तो तबियत से उछालों यारों..................."

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रविवार, 7 मार्च 2010

८ मार्च अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस पर विशेष....

औरत.......... तुम  फिर से बनोगी दासी ............... अरविन्द झा जी का ये लेख पढ़ा तो कई विचार मन में आने लगे उसके कुछ अंश यंहा प्रस्तुत है... लेकिन सबसे पहले....

एक कटु सत्य से नारी को आगाह करने के लिए अरविन्द झा जी को धन्यवाद्...
लेकिन उनके लेख पर क्षमा जी कि दी इस टिप्पणी से भी मै पूरी तरह सहमत हू ............

 Naaree to aajbhi daasee hee hai! Aisi aurtonki sankhya aajbhi adhik hai,jo pashvi atyacharon se dam tod deti hain...
.
एक ओर जंहा देश की बागडोर प्रतिभा पाटिल जैसी सशक्त महिला के हाथो  में है  वंही दहेज़ प्रताड़ना , टोनही प्रताड़ना , भ्रूण हत्या , यौन शोषण जैसी न जाने कितनी प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष यातनाओ से उसे रोज गुजरना होता है , यह सच है कि  झूठे दहेज और प्रताडना की शिकायतें दर्ज करवाई जाती है और कई मामले में यह सच भी होती है... लेकिन किसी ने यह जानने कि कोशिश कि , कि उक्त महिला ने झूटी रिपोर्ट दर्ज क्यों करवाई...निश्चित रूप से कई प्रताड़नाये  ऐसी होती है जिसे कोई भी महिला चाहते हुए भी सबके सामने कभी नहीं लाना चाहती ... जिसका कारन सिर्फ  यही हो सकता  है कि आज  महिला अपने ही घर में सुरक्षित नहीं है...

देश में लगातार प्रति पुरुष महिलाओ का प्रतिशत कम होता जा रहा है लेकिन इसकी जिम्मेदार महिलाये कैसे है ये मै नहीं जानती हां इतना ज़रूर जानती हू कि "घरो में भी रैगिंग होती है " जिसका परिणाम होता है एक बहु कि दयनीय स्थिति . और भ्रूण हत्या जैसा कदम कोई महिला "एक भावी महिला " को शायद उस दयनीय स्थिति से बचाने के लिए ही कर सकती  है और एक औरत जो स्वयं एक माँ है , बेटी है ,बहन है , पत्नी है उसके लिए भ्रूण हत्या जैसा क्रूर कदम उठाने का कारन ज़रूर कोई बहुत बड़ी मजबूरी होती है या उसका पत्थर दिल जिसे पत्थर बनाने में समाज के एक  वर्ग का बहुत बड़ा हाथ है ,  और निश्चित रूप से भ्रूण  हत्या का जिम्मेदार वो महिला नहीं बल्कि वो  वर्ग  है जो कि महिलाओ कि दयनीय स्थिति के लिए जिम्मेदार  है . आज भी  वारिस  चाहत में कई पुरुष महिलाओ को केवल एक फैक्ट्री से ज्यादा कुछ नहीं समझते ..............

रही बात वेश्यावृत्ति के महिलाओ के बढ़ावा देने के बारे में तो किसी भी महिला के लिए उसकी इज्जत क्या होती है ये एक महिला से ज्यादा कोई नहीं समझ नहीं सकता क्योकि आज हर रिश्ता कटघरे में खड़ा है जंहा हर रिश्ते में एक औरत कि इज्जत तार - तार हुई है...और कोई भी महिला अपनी ख़ुशी से कभी भी इस धंधे में नहीं आती यह बात सव्रेक्षण में सामने आ चुकी है .फिर  एक बार अपनी ईज्जत खोई महिला का हाथ जब उसके अपने और  इस समाज के बुध्हिजिवी वर्ग का कोई भी पुरुष नहीं थामना चाहता ऐसी स्थिति में .....जब "पेट कि खातिर " एक पुरुष का इमान डगमगा जाता है तो समाज अकेली औरत को दोष क्यों देती है......और फिर विक्षिप्त  महिलाओ के बारे में आप क्या राय देना चाहेंगे जो सड़क के किनारे अपने बच्चे  के साथ लावारिस सी रहती है क्या उस विक्षिप्त के माँ बनाने  का कारन भी वो स्वयं है ........?

यह सच है कि कुछ महिलाओ ने उनको मिले अधिकारों का दुरूपयोग किया है लेकिन मेरा मानना है कि भगवान ने इस दुनिया में हमेशा बुरे लोगो से ज्यादा अच्छे लोंगो का प्रतिशत रखा है और उन महिलाओ को भी ज़रूर सबक मिलेगा जिन्होंने उन्हें मिले अधिकारों को हथियार कि तरह प्रयोग किया है ,लेकिन इन अधिकारों की, पीड़ित महिलाओ को बहुत ज़रूरत है क्योंकि इनके आभाव में वो दासी से भी नारकीय जीवन बिताने में मजबूर है .आज इतने अधिकारों के होने के बाद भी महिलाओ कि स्थिति समाज में अच्छी नहीं मानी जा सकती हां कुछ जागरूक लोग ज़रूर सर्वसुविधायुक्त  एसी कमरे में बैठकर महिलाओ कि अच्छी स्थिति का वर्णन करे पर में उन्हें सलाह देना चाहूंगी कि महिलाओ वास्तविक स्थिति जानने के लिए वो ऐसी ज़गहो का दौरा करे जंहा महिलाये अप्रत्यक्ष रूप से अभी भी कैद है और दासी का जीवन जीने मजबूर है...और ये बात मै अपने प्रत्यक्ष अनुभव से लिख रही हू...................................

आज पुरुष वर्ग और नारी वर्ग को एक दुसरे पर आरोप प्रत्यारोप न करके दोनों को साथ मिलकर नारी उत्थान कि ओर कार्य करना होगा.पहले मेरा मानना था कि समाज में नारी कि स्थिति को मजबूत बनाने के लिए नारी को ही आगे आना होगा लेकिन अब मेरा ये मानना है कि समाज में नारी कि स्थिति सुधारने के लिए जितना महिलाओ को जागरूक होना ज़रूरी है उससे कही ज्यादा पुरुषो कि जागरूकता ज़रूरी है ..........

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शुक्रवार, 26 फ़रवरी 2010

होली की शुभकामनाये....

रंगों का त्यौहार है होली........
न जाने कितने रंग समाये है होली के इन रंगों में....
पर मेने सुना है सबसे खुबसूरत रंग तो प्यार का होता है.........
अपनेपन और विश्वास का होता है..........
सच्चाई और इमानदारी का होता है........
क्यों न खो जाये होली के संग..........
जीवन के इन पक्के रंगों में........
बांध ले अपनों को एक अटूट बंधन में..........
और लगाए किसी ऐसे के मस्तक  पर  तिलक...
जिनके बेरंग जीवन में नहीं है किसी अपने का रंग...
देकर उनको ये अनमोल तोहफा...
देखे तो सही अपने जीवन में रंगों का मज़ा...


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रविवार, 14 फ़रवरी 2010

मै प्रतिदान नहीं,अपने दिए का सम्मान चाहती हूँ

" वेलेंटाइन डे " पर ख़ास....

मै अनुभव करती हूँ ,
"तुमसे चाहना "
"तुम्हे चाहने' से
कितना भिन्न है ...

अच्छा हो ,
अगर तुम भी
अंतर कर सको
"मुझ से चाहने "
और "मुझे चाहने "
के बीच....

मै प्रतिदान नहीं चाहती,
केवल अपने दिए का
सम्मान  चाहती हू....

संकलन 
'युग्म" से.........

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आखिर वेलेंटाइन डे का विरोध क्यों........?

पिछले दिनों मेने सुना कि देश में एक नया मुद्दा जोर पकड़ते जा रहा है ...वेलेंटाइन डे के विरोध का ....कुछ लोग जो स्वयं को भारतीय संस्कृति का ठेकेदार(?) बता रहे थे  इस प्रेम  दिवस के विरोध में चेतावनी दे रहे थे इस दिवस को सेलिब्रेट नहीं करने के लिए......इसके अलावा  पिछले कुछ दिनों से स्क्रैप, एस एम एस  के ज़रिये मुझे कुछ विशेष दिनों जैसे कि स्माइल डे , प्रपोज़ डे, चाकलेट डे, टेडी डे, प्रोमिस डे,व्हाइट शर्ट डे  और पता नहीं क्या - क्या " डे"  सेलेब्रेशन के बारे में पता चला....
लोंगो ने मुझे विश किया और मेने भी औरो के देखा देखी अपने कुछ मित्रो को विश किया.....अब तक तो मेने मदर्स डे , फादर्स डे, फ्रेंडशिप डे, रोज़ डे आदी के बारे में ही सुना था लेकिन इन " डे ' के बारे में जानकारी नहीं थी..

मेने इन विरोधकर्ताओ से ये भी सुना कि ये वेलेंटाइन डे  विदेश से आयातित संस्कृति है और यही कारन है कि वो लोग इस प्रेम दिवस का विरोध कर रहे है, मुझे लगा कि शायद इन लोंगो को न्यू इयर सेलेब्रेशन के बारे में नहीं मालूम जिसका  भारत देश में बहुत जोर शोर से आयोजन होता है, या उनकी परिभाषा ब्रिटेन के झंडे तले बदल जाती है ....

समाचार पत्रों में तरह - तरह की चेतावनी, रैली , तोड़ - फोड़ , या प्रेमी युगलों के साथ दुर्व्यवहार शायद  उन धर्म के ठेकेदारों  के अनुसार भारतीय संस्कृति  का परिचायक हो. वर्ष भर विदेश आयातित संस्कृति के पालनकर्ता वेलेंटाइन डे के विरोध में  पहली लाइन में खड़े नज़र आते है..लेकिन १९०६ में हुए स्वदेशी एवं बहिष्कार आन्दोलन की तुलना में  आज का वेलेंटाइन डे का विरोध क्यों अधिक लोकप्रिय नहीं हो सका शायद  इसका जवाब वो धर्म के ठेकेदार बखूबी जानते हो....

 भारत में किसी भी त्यौहार को मानाने के पीछे धार्मिक भावनाए छिपी रहती है लेकिन पश्चात्य आयातित इस संस्कृति में धार्मिक तो नहीं लेकिन मानवीय भावनाए ज़रूर छिपी हुई है . एक ऐसी भावना  जो प्रेम और शांति का प्रतीक है .कोई भी चीज़ अच्छी या बुरी नहीं होती बल्कि उसे देखने का नजरिया अच्छा या बुरा हो सकता है उसी तरह वेलेंटाइन डे का औचित्य बुरा नहीं ,अपितु इसकी  आड़ में की जा रही अश्लीलता और भौंडापन बुरा है .भले ही इस त्यौहार में पाश्चात्य की झलक हो लेकिन इसी भारतीय संस्कृति के रक्षक , हमारे बुजुर्गो ने इसे अपना कर युवा पीढ़ी को भटकने से बचने एक नया सन्देश दिया  है जिनका इशारा ये विरोधकर्ता नहीं समझ रहे है . समाचार पत्रों के माध्यम से ही पता चला कि बुजुर्गो के  विभिन्न संस्थाओ ने,और कई महिला संगठनो ने अपने अपने तरीके से इस प्रेम दिवस को बहुत ही शालीन रूप में अपनाया है . क्या ये शालीनता सिर्फ बुजुर्गो में है? में समझती हू आज कि युवा पीढ़ी इतनी भी गैर जिम्मेदार नहीं कि उन्हें अच्छे या बुरे का भान ना हो. और वो किसी पाश्चात्य संस्कृति  को भारतीय  संस्कृति के अनुरूप शालीनता से ना अपना सके .

आधुनिकता की होड़ में अपनी संस्कृति से परे हटकर भेडचाल की संस्कृति अपनाना सही नहीं होता .इसलिए दूसरो की गलत चीजों की नक़ल न करते हुए  और "वेलेंटाइन डे " को भारतीय परिवेश में सजाते हुए हमारे बुजुर्गो ने युवा पीढ़ी को एक नयी राह दिखाई है . .मुझे मेरे दादाजी की कही एक बात याद आती है.."की यदि हमारे दुश्मन में भी कोई अच्छे गुण है तो हमें उनका अनुसरण करना चाहिए." क्यों ना हम "वेलेंटाइन डे" को भारतीय परिवेश में सजाते हुए कोई ऐसा उदाहरण दुनिया के सामने प्रस्तुत करे जिससे कि दुनिया के सभी  लोग इस दिन को भारतीय तरीके से अपनाने को मजबूर हो जाये और प्रेम के प्रतीक के रूप में मनाया जाने वाला यह त्यौहार चारो ओर प्रेम और शांति कि खुशबू  बिखेरे...

 "तोषी"........(मुस्कान)


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"क्यों खास है मेरे लिए वेलेनटाइन डे........."

सचमुच बहुत ख़ास है मेरे लिए वेलेंटाइन डे.............लेकिन मेरे लिए यह दिन क्यों खास है.................?
यही तो वो दिन है जब मेरे कैरियर को एक नई दिशा मिली थी........प्रिंट मीडिया से इलेक्ट्रानिक मीडिया कि ओर मेरा पहला कदम..............मेरी पहली रिकॉर्डिंग...........वेलेंटाइन डे के इस ख़ास मौके पर एक स्पेशल प्रोग्राम.....१४ फरवरी २००२....दूरदर्शन केंद्र रायपुर से शुरू यह रिकार्डिंग अशोका टावर ,दिशा आन लाइन, फ़ूड ज़ोन, और  कुछ ग्रीटिंग्स - गिफ्ट कार्नर होते हुए वापस दूरदर्शन केंद्र में ख़त्म हुई. पहली रिकॉर्डिंग और वो भी आउट डोर मुश्किल ज़रूर था...........लेकिन तोषी के लिए मुश्किले ज्यादा मुश्किल नहीं होती...और हमारी टीम ने जो सहयोग दिया उसके कारन ही बिना ऑडिशन दिए मुझे मिला पहला प्रोग्राम  मेरे कैरियर के लिए मील का पत्थर साबित हुआ और मुझे साप्ताहिकी, गीतमाला, विभिन्न त्योहारों के स्पेशल प्रोग्राम ,के साथ शिक्षा , कानून , स्वस्थ्य जैसे महत्वपूर्ण विषयो के परिचर्चा के संचालन का अवसर मिला . शादी के बाद थोडा ठहराव ज़रूर आया है लेकिन मुझे मालूम है ये ठहराव ज्यादा दिन कायम नहीं रहेगा और एक बार फिर मै अपनी उस मनपसंद  दुनिया में ज़रूर लौटूंगी...क्योंकि मीडिया से जुड़े लोग लाईट, कैमरा, एक्शन ......का नशा बखूबी जानते है कि ये खुमारी इतनी  आसानी से नहीं उतरती....... 
"तोषी"...(मुस्कान)

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बुधवार, 3 फ़रवरी 2010

बेकाबू होती भीड़ पर किसका काबू...

घटना १ - २ जनवरी रायगढ़ जिले के दानसरा नामक  गाव में सड़क हादसे में ट्रक से एक व्यक्ति की मौत के बाद आक्रोशित भीड़ द्वारा ४ अन्य ट्रक आग के हवाले कर दिया गया.साथ ही २ प्राइवेट कारो को भी नुकसान पहुचाने की कोशिश की गई....


घटना -२-  ३१ जनवरी को जांजगीर- चांपा जिले के चंद्रपुर में सड़क हादसे में एक व्यक्ति की मौत के बाद आक्रोशित भीड़ ने १० वाहन  फूंक दिए साथ ही मौके का फायदा उठाते हुए देशी विदेशी शराब की दुकानों में लूट पाट कर करीब ३ लाख रूपये उड़ा लिए...

घटना-३- ३१ जनवरी दुर्ग जिले के धमधा में एक ट्रक की चपेट में आने से ५ साल की बच्ची की मौत के बाद आक्रोशित ग्रामीणों ने ट्रक चालक की जमकर पिटाई कर ट्रक में आग लगा दी...


घटना-४- २ फरवरी राउरकेला में एक स्कूल बस से एक छात्र की मौत के बाद आक्रोशित भीड़ ने बस में आग लगा दी...

                                          उपरोक्त सभी घटनाये दुखद ज़रूर है पर  कंही न कंही सभी घटनाओं में लापरवाही पूर्वक वाहन चलाने की धृष्टता  भी नज़र  आ रही है . लेकिन ये सभी घटनाये उस  बेकाबू होती भीड़ की ओर इशारा कर रही है जिस पर उस अप्रिय घटना के बाद काबू नहीं पाया जा सका और एक अप्रिय घटना के घटित होने के फलस्वरूप कई अप्रिय घटनाओ का जन्म हुआ . ऐसी घटनाये आये दिन आपको न्यूज़ पेपर में पढने को मिल जायेंगे जिसमे किसी घटनाक्रम से गुस्साए लोंगो द्वारा क़ानून तोडा गया हो . पर इस बेकाबू होती भीड़ पर बिना किसी अप्रिय घटना को अंजाम दिए काबू  पाने की न्यूज़ आपको किसी न्यूज़ पेपर में नहीं मिलेगी कारन उस बेकाबू होती भीड़ पर किसी का काबू नहीं होता ......

                      अब सवाल यह उठता है कि इस भीड़ में इतना आक्रोश ,इतनी नफरत , इतनी हिंसा आखिर आई कहा से....

                                                 जब हम कोई अखबार पढ़ रहे होते है तो देश कि गौरव गाथा कहने वाले, जनरल नालेज  वाले,वैजानिक तर्कों आदि की  खबरे  कम और नकारात्मक सोच देने वाली खबरे ज्यादा होंगी. इसी तरह इलेक्ट्रानिक मीडिया, जो नकारात्मक, हिंसक और घटिया बातो को लगातार रात- दिन अपने चैनल पर दर्शको को ऐसा मसालेदार तड़का लगाकर परोसता है जिसमे आम  दर्शक सिर्फ ये आस लेकर बैठा रहता है कि अब आगे क्या होगा..लेकिन समाज का एक बहुत बड़ा वर्ग जो इन समाचार चैनलों को जानकारी का सबसे सही जरिया मानकर अपना अधिकांश वक्त लगाते है  उस वर्ग पर ऐसे घातक न्यूज़ का क्या असर पड़ता होगा वो इस बात से अनजान रहते है या अनजान बने रहने का झूठा दिखावा करते है. टी.आर.पी. की अंधी दौड़ में शामिल और गलाकाट आपसी मुकाबले में  लगे इन न्यूज़ चैनलों का नैतिक मूल्यों से आखिर क्या सरोकार...? और ऐसे माहौल में दर्शको या पाठको की सोच को सरोकारविहीन , गैर जिम्मेदार और लापरवाह होने से कैसे बचाया जा सकता है...?

          हालाँकि इस बेकाबू होती भीड़ का पूरा जिम्मेदार  सिर्फ मीडिया को ठहराना गलत होगा लेकिन फिर भी मेरा मानना यही है कि जब रात-दिन मीडिया दुनिया भर कि नफरत और हिंसा दिखने पर आमादा हो तो इंसानी सोच पर उसका असर पड़ना तो तय है...


          

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मंगलवार, 26 जनवरी 2010

मीडिया में नारी शोषण ....................

नारी कुदरत क़ी बनाई अनिवार्य रचना है ,जिसके उत्थान हेतु समाज के बुद्धिजीवी वर्ग ने सतत संघर्ष किया है। आज क़ी बहुमुखी प्रतिभाशील नारी उसी सतत प्रयास का परिणाम है। आज नारी ने हर क्षेत्र में अपना प्रभुत्व कायम किया है, चाहे वह शासकीय क्षेत्र हो या सामाजिक, घर हो या कोर्ट कचहरी , डाक्टर, इंजिनीयर, अथवा सेना का क्षेत्र, जो क्षेत्र पहले सिर्फ पुरुषो के आधिपत्य माने जाते थे, उनमे स्त्रियों क़ी भागीदारी प्रशंसा का विषय है। इसी तरह प्रिंट और इलेक्ट्रोनिक मीडिया भी स्त्रीयों क़ी भागीदारी से अछूता नहीं है ।
प्रिंट और इलेक्ट्रानिक मीडिया समाज के दर्पण होते है, जिसमे समाज अपना अक्श देखकर आत्मावलोकन कर सकता है । पिछले कई वर्षो से मीडिया में नारी क़ी भूमिका सोचनीय होती जा रही है। आज प्रिंट और इलेक्ट्रोनिक मीडिया जिस तरह नारी क़ी अस्मिता को भुना रहा है, वह जाने - अनजाने समाज को एक अंतहीन गर्त क़ी ओर धकेलते जा रहा है। इसका दुष्परिणाम यह है क़ी आज नारी ऊँचे से ऊँचे ओहदे या प्रोफेशन में कार्यरत क्यों ना हो वह सदैव एक अनजाने भय से ग्रसित रहती है। क्या है ये अनजाना भय ? निश्चित रूप से यह केवल उसके नारी होने का भय है जो हर समय उसे असुरक्षित होने का अहसास दिलाता रहता है। आलम यह है क़ी आज नारी घर क़ी चारदीवारी में भी अपनी अस्मिता बचने में अक्षम है।
प्रारंभ में प्रिंट एवं इलेक्ट्रानिक मीडिया धार्मिक, सात्विक संदेशो द्वारा समाज को सही मार्गदर्शन देने का आधार था , लेकिन धीरे - धीरे उसका भी व्यवसायीकरण हो गया और झूठी लोकप्रियता भुनाने वह समाज के पथप्रेरक के रूप में कम और पथभ्रमित करने के माध्यम के रूप में अधिक नज़र आने लगा। शुरुआत हम छोटे परदे से करते है, जहा लगभग हर सीरीयल मे मानवीय संबंधो के आदर्श रूप को नकारते हुए नारी को एक ऐसी " वस्तु " के रूप में दर्शको के सामने परोसा जाता है, जंहा वह केवल एक भोग्या मात्र ही दिखाई जाती है। हर दूसरा सीरीयल नारी के पूज्यनीय चरित्र क़ी धज्जिया उडाता हुआ नज़र आता है। एक नारी पात्र ही दूसरी नारी पात्र पर शोषण और अत्याचार करती हुई नज़र आती है। नारी के विकृत रूप को दिखाने क़ी रही सही कसर एक ख्याति प्राप्त निर्देशिका के डेली सोप सीरीयलों ने पूरी कर दी जिसने रिश्तो क़ी सभी मर्यादाए तोड़ दी और कितने आश्चर्य क़ी बात है कि यही सब सीरीयल काउंट डाउन शो में अपनी सफलता के परचम गाड़ते हुए टाप नम्बरों पर होते है।
इसी तरह यदि हम विभिन्न विज्ञापनों कि बात करे तो विज्ञापनों ने तो हमारी संस्कृति कि सीमा ही लाँघ दी। विज्ञापनों में नारी कि भूमिका कंही से भी विकृत नहीं बशर्ते कि उससे समाज को अच्छा सन्देश मिले लेकिन विज्ञापनों में नारी के नग्न रूप का प्रदर्शन समाज में नारी के प्रति आकर्षण नहीं बल्कि विकर्षण पैदा करता है । अप्रत्यक्ष रूप से ऐसा विज्ञापन समाज में गन्दी मानसिकता पनपने पर जोर देता है ओर सामाजिक अपराधो को बल मिलता है। बलात्कार, महिला शोषण, यौन शोषण आदि सब इसी विकर्षण का नतीजा है। अधिकतर विज्ञापनों में नारी देह प्रदर्शन ही देखने को मिलता है। किसी ने तर्क के आधार पर यह जानने का प्रयास ही नहीं किया कि देह प्रदर्शन के कारन बाजार में कोई वस्तु बिकती है या अपनी गुणवत्ता के कारन। किसी वस्तु को विज्ञापनों में देह प्रदर्शन के बिना प्रदर्शित किया जाये तो उसकी बिक्री कम होगी या नहीं होगी ऐसा कोई तर्क स्वीकार्य नहीं है। कितने अफ़सोस कि बात है कि आज किसी वस्तु के प्रचार - प्रसार के लिए एक नारी को किसी वस्तु कि तरह उपयोग किया जा रहा है।
फिल्मो ने तो नारी देह के प्रदर्शन में सभी को पीछे छोड़ दिया , जंहा अभिनेत्रिया आपत्तिजनक अंगप्रदर्शन और दृश्य करने के बाद यह कहकर पल्ला झाड लेती है कि फला सीन में कोई बुराई नहीं है और यह तो फिल्म कि मांग और सिचुएशन के अनुरूप है। इससे शर्मनाक स्थिति और क्या हो सकती है जब स्वयं नारी ही एक अनुचित प्रदर्शन को लेकर इस तरह का तर्क प्रस्तुत करे। " क्या कूल है हम..." "गरम - मसाला" , नो एंट्री जैसी घटिया कॉमेडी फिल्मे दर्शको के सामने परोसकर निर्माता - निर्देशक समाज को कौन सी दिशा देना चाहते है ये मेरी समझ से परे है । और उसके बाद निर्माता - निर्देशकों द्वारा यह टिपण्णी किया जाना कि ऐसी फिल्मे आज के दर्शको कि डिमांड है और यंग जेनरेशन के अनुरूप है, बहुत ही हास्यास्पद लगता है। निश्चित रूप से ये फिल्मे जो "ऐ " सर्टिफिकेट नहीं है (?) पुरे परिवार के साथ बैठकर देखी जा सकती है बशर्ते कि पूरा परिवार अलग -अलग कमरों में बैठकर फिल्मे देख रहा हो। प्रिंट और इलेक्ट्रानिक मीडिया में नारी देह के प्रदर्शन से फैलती गन्दी मानसिकता का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि दिल्ली के एक प्रतिष्ठित स्कूल की छात्रा का आपत्तिजनक एम् एम् एस किसी वायरस कि भाति लोकप्रिय (?) हो गया और इंदौर के किसी कालेज की लडकियों कि आपत्तिजनक तस्वीरे किसी "विशेष" इंटरनेट साईट पर देखी गई , जिससे लडकिया पूरी तरह अनजान थी। इस बढ़ते साईबर क्राइम का जिम्मेदार कौन है ?
माना कि नारी सुन्दरता का प्रतीक है , और सुन्दर दृश्य मन को प्रफुल्लित करता है, परन्तु जब इस सौंदर्य कि सीमा लांघी जाती है, तो वही उसके बुरे स्वरुप का परिचायक बन जाता है। किसी भी देश और समाज कि उन्नति तभी संभव है , जब उस देश की, उस समाज की नारी का वंहा सम्मान हो। आज प्रिंट एवं इलेक्ट्रानिक मीडिया में नारी कि भूमिका में पर्याप्त सुधार की आवश्यकता है । हमें पाश्चात्य सभ्यता एवं वातावरण का अनुकरण ना करके समाज को भारतीय संस्कृति की ओर लौटने के लिए प्रेरित करना होगा । भोगवादी प्रवृत्ति को समाप्त करके ऐसा वातावरण बनाना होगा जंहा नारी को पूर्ववत आदर एवं सम्मान मिले। आज के इस भोगवादी समाज में नारी सम्मान के अपमान कि धृष्टता करने वालो को यह बताने कि आवश्यकता है कि नारी केवल सहनशीलता और त्याग कि मूर्ती नहीं है, बल्कि ज़रूरत पड़ने पर वह अपने ऊपर होने वाले अन्याय का मुहतोड़ जवाब देकर आत्मविश्वास के साथ सुखपूर्वक जीवन बिता सकती है।
सबसे अहम् बात यह है कि प्रिंट एवं इलेक्ट्रानिक मीडिया में नारी कि भूमिका में बदलाव लाने के लिए पहला कदम स्वयं नारियों को ही उठाना होगा तभी यह सुधारवादी आन्दोलन सफलता प्राप्त करेगा और एक स्वस्थ और सुखी समाज कि कल्पना कि जा सकती है।

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रविवार, 24 जनवरी 2010

ब्लागर्स मीटिंग

आज सुबह लगभग ११ बजे जब संजीव तिवारी जी का फ़ोन आया कि आज प्रेस क्लब में ३ बजे ब्लागर्स की प्रेस वार्ता है और मुझे भी आना है तो मै सोच रही थी की ब्लागर्स वार्ता में क्या होगा . क्योंकि अभी तक मेने सिर्फ लोंगो का ब्लॉग पढ़ा था लेकिन न ही मै उनसे मिली थी और न ही उन्हें जानती थी . सिवाय संजीव जी के, जिनकी प्रेरणा से मेने ब्लॉग जगत में कदम रखा । वैसे भी पिछले कुछ दिनों से हम लोग कुछ तथाकथित पत्रकारों से व्यथित होकर ब्लॉग से कुछ दुरी बना लिए थे मेने सोचा कि वंहा चलते है,शायद कोई हल निकल आये । संजीव जी ने पहले ही अपने कुछ ब्लोगर्स मित्रो से हमारी परेशानी कि चर्चा कि थी। प्रेस क्लब पहुच कर मेने पाया कि में अनजाने लोगो के बीच नहीं बल्कि अपने कुछ पुराने परिचितों के बीच आयी हू। अनिल पुसदकर जी , ललित शर्मा जी, राजकुमार ग्वालानी जी, अहफाज़ रशीद जी,पावला जी,सूर्यकांत गुप्ता जी, अवधिया जी,संजीत त्रिपाठी जी का जो आश्वासन मुझे प्राप्त हुआ उससे लग रहा हे कि हमारी परेशानी ज्यादा दिनों तक हमें परेशान नहीं करेगी। और इन सभी से मिलकर मुझे ये लगा कि हमें ब्लाग जगत से दुरी नहीं बनानी चाहिए थी और अभिव्यक्ति कि जो स्वतंत्रता हमारे सविधान ने हमें दी है उसका उपयोग करने से हमें कोई नहीं रोक सकता । क्योंकि सच हमेशा सच ही रहता है,और सच का समर्थन करना गलत नहीं है। मुझे ख़ुशी है कि मै वापस ब्लॉग जगत में आई ,और अब मेरी लेखनी किसी के डर से नहीं रुकेगी । मै आभारी हू आप सभी कि जिन्होंने मेरा हौसला बढाया और मुझे ब्लाग जगत में वापस लाया.....

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